गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान् कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥
एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान् कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥
भावार्थ: उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे (और जल में गिर पड़ते थे) इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान् जी से भी किया। हनुमान् जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया॥2॥
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