Omsanatan
Tuesday, June 11, 2019
श्रीमद्भगवद्गीता
यस्त्वात्मरतिरेव स्या
दात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्त
स्य कार्यं न विद्यते ॥
भावार्थ :
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में
ही सन्तुष्ट
हो
,
उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है
II
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