तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥॥
भावार्थ:-(विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र!
मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभ। हे
तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥
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