Friday, February 8, 2019

राजा विक्रमादित्य भी नहीं बच पाए थे शनिदेव के प्रकोप से

शनिदेव जिस भी व्यक्ति के कर्मों से खुश होते हैं उसके जीवन में खुशियों की वर्षों कर देते हैं और पाप करने वालों को कठोर दंड देते हैं। इसलिये हमेशा अच्छे कर्म करने चाहिए और हर शनिवार को शनिदेव की पूजा-पाठ करनी चाहिए। शनिदेव के प्रकोप से कोई भी नहीं बच सका है, राजा विक्रमादित्य को भी शनिदेव का प्रकोप सहना पड़ा था। एक बार की बात है सभी ग्रह एक साथ इकट्ठे हुए और आपस में बाते करने लगे। उनमें विवाद छिड़ गया कि इनमें “सबसे सम्मानित ग्रह कौनसा है”? वो सब आपस में तर्क वितर्क करने लगे लेकिन कोई नतीजा नहीं निकलने पर सभी देवराज इंद्र के पास निर्णय कराने पहुंचे। इंद्र भी चिंतिन में पड़ गये क्योंकि अगर वो किसी को उचा या नीचा दिखायेंगे तो किसी भी ग्रह का कोप उन पर गिर सकता था। 

कुछ देर बाद विचार करने के बाद इंद्र देव ने कहा “मान्यवरो, मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हुं लेकिन उज्जैयनी नगर में विक्रमादित्य नाम का राजा है जो आपके प्रश्न का उत्तर दे सकता है”। सभी ग्रह एक साथ राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचे, और अपना विवाद बताया। साथ ही निर्णय लेने के लिये कहा। विक्रमादित्य उस समय का सबसे पसंदीदा राजा था क्योंकि वो अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध था। जब उसने देखा कि सभी ग्रह उसके दरबार में आ रहे हैं तो वो तुंरत अपने सिंहासन से उठ गया और उन्हें अपने आसनों पर बैठने को कहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा “हम यहा तब तक आसनों पर नहीं बैठेंगे जब तक तुम ये न्याय ना कर दो कि हम सब में से सबसे ऊचा ग्रह कौनसा है”। राजा इस समस्या से अति चिंतित हो उठे, क्योंकि वे जानते थे, कि जिस किसी को भी छोटा बताया, वही कुपित हो उठेगा। तब राजा को एक उपाय सूझा। 

उन्होंने स्वर्ण, रजत, कांस्य, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लौह से नौ सिंहासन बनवाये, और उन्हें इसी क्रम से रख दिये। फिर उन सबसे निवेदन किया, कि आप सभी अपने अपने सिंहासन पर स्थान ग्रहण करें। जो अंतिम सिंहासन पर बेठेगा, वही सबसे छोटा होगा। विक्रम के सबसे निकट वाले आसन पर बृहस्पति जी दौड़ते हुए जाकर बैठ गये। अगले आसन पर सूर्य, उसके बाद चन्द्रमा, उसके बाद मंगल, फिर राहू ओर फिर केतु बैठ गये। शुक्र देव आठवें आसन पर बैठ गये और अब अंतिम आसन बचा था और शनि देव बच गये थे। लेकिन वो आसन सबसे अंतिम था और द्वार के नजदीक था इसलिए शनि देव ने वहा बैठने से मना कर दिया। 



उन्होंने सोचा, कि राजा ने यह जान बूझ कर किया है। उन्होंने कुपित हो कर राजा से कहा “राजा! तू मुझे नहीं जानता। सूर्य एक राशि में एक महीना, चंद्रमा सवा दो महीना दो दिन, मंगल डेड़ महीना, बृहस्पति तेरह महीने, व बुद्ध और शुक्र एक एक महीने विचरण करते हैं। परन्तु मैं ढाई से साढ़े-सात साल तक रहता हुँ। बड़े बड़ों का मैंने विनाश किया है। श्री राम की साढ़े साती आने पर उन्हें वनवास हो गया, रावण की आने पर उसकी लंका को बंदरों की सेना से परास्त होना पड़ा। अब तुम सावधान रहना”। ऐसा कहकर कुपित होते हुए शनिदेव वहां से चले गये। अन्य देवता खुशी खुशी चले गये। 

कुछ समय बाद राजा की साढ़े साती आयी। तब शनि देव घोड़ों के सौदागर बनकर वहां आये। उनके साथ कई बढ़िया घोड़े थे। राजा ने भी कुछ सुंदर घोड़े खुद के लिए खरीदे, उनमे से एक घोड़े का नाम भंवर था जिसे राजा बहुत पसंद करता था। राजा उस घोड़े पर सवार हो गया और इधर उधर घुमने लगा तभी कुछ देर बाद वो दौड़ता हुआ राजा को एक घने जंगल में छोडकर भाग गया। राजा को ये देखकर बहुत आश्चर्य हुआ और अब वो उस जंगल में भूखा-प्यासा भटकने लगा। एक दूधवाला उस रास्ते से गुजर रहा था उसने विक्रम को देख लियाय। वो विक्रम को पास की नदी पर लेकर गया और उसे शीतल जल पिलाया। 

विक्रम बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उस दूधवाले को अपनी सोने की अंगूठी निकालकर दे दी और कहा “मैं उज्जैन रहता हु और रास्ता भटक गया हुं, क्या तुम मुझे रास्ता बता सकते हो”। वो दूधवाला राजा को गांव लेकर गया और एक दूकानदार ने उन्हें भोजन कराया। उस दुकानदार से भी खुश होकर विक्रम ने उसे एक अंगूठी दी और उसको भी विक्रम ने रास्ता भटकने वाली बात बताई। भाग्यवश उस दुकानदार की बहुत बिक्री हुई, इतनी बिक्री होते हुए देखकर दुकानदार खुश होकर राजा को अपने घर ले गया। दुकानदार ने घर पर राजा की खूख खातिरदारी की। लेकिन खाना खाते समय एक अजीब सी घटना हुई। जब सभी खाना खा रहे थे तो दुकानदार की नौकरानी ने उसकी पत्नी को गले का हार चोरी होने की खबर दी। 

जब दुकानदार ने ये बात सुनी तो उसने विक्रम से हार के बारे में पूछा तो विक्रम के हार के बारे में कुछ भी पता होने से इंकार कर दिया। दुकानदार ने समक्षा की राजा ने उसके हार को चुराया है और उसे चोरी के इल्जाम में उसे कोतवाल के पास पकड़वा दिया। फिर राजा ने भी उसे चोर समझ कर उसके हाथ पैर कटवा दिये। वह चौरंगिया बन गया और नगर के बाहर फिंकवा दिया। वहां से एक तेली निकल रहा था, जिसे दया आयी, और उसने विक्रम को अपनी गाडी़ में बिठा लिया। वह अपनी जीभ से बैलों को हांकने लगा। उस काल राजा की शनि दशा समाप्त हो गयी। वर्षा काल आने पर वह मल्हार गाने लगा। 

तब वह जिस नगर में था, वहां की राजकुमारी मनभावनी को वह इतना भाया, कि उसने मन ही मन प्रण कर लिया, कि वह उस राग गाने वाले से ही विवाह करेगी। उसने अपनी दासी को भेजकर उस आदमी का पता लगाने को कहा। दासी वहा गयी और उसने राजकुमारी को बताया कि एक नौजवान अपनी आंखे बंद कर गा रहा था। राजकुमारी उसके प्यार में खाना पीना भूल गयी, जब उसकी मां ने उसकी दशा देखी तो कारण पूछा। राजकुमारी ने कहा कि अगर वो विवाह करेगी तो सिर्फ उस मधुर गाना गाने वाले तेली से विवाह करेगी। 

जब राजा ने ये मांग सुनी तो वह क्रोधित हो गया और व्रिकम को बुलाया और उसके कांट कर उसे जंगल में फेंक दिया। जब राजकुमारी को इस बारे में पता चला तो वो अपनी जिद पर और अड़ गई और कहा कि अगर वो विवाह करेगी तो उनसे ही करेगी। बेटी की जिद के आगे राजा हार गये और अपनी पुत्री का विवाह विक्रम से करा दिया। एक दिन सोते हुए उन्हें स्वप्न में शनिदेव ने कहा कि राजन देखा तुमने मुझे छोटा बता कर कितना दुख झेला है। तब राजा ने उनसे क्षमा मांगी, और प्रार्थना की, कि हे शनिदेव जैसा दुःख मुझे दिया है, किसी और को ना दें। शनिदेव मान गये, और कहा: जो मेरी कथा और व्रत कहेगा, उसे मेरी दशा में कोई दुःख ना होगा। जो नित्य मेरा ध्यान करेगा, और चींटियों को आटा डालेगा, उसके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे। साथ ही राजा को हाथ पैर भी वापस दिये। 

प्रातः आंख खुलने पर राजकुमारी ने देखा, तो वह आश्चर्यचकित रह गयी। तब उन्होंने राजकुमारी को अपने ऊपर बीती सारी बात बताई। तबसे सारे राज्य में शनिदेव की पूजा और कथा नियमित होने लगी। सारी प्रजा ने बहुत समय खुशी और आनंद के साथ बीताया। जो कोई शनि देव की इस कथा को सुनता या पढ़ता है, उसके सारे दुःख दूर हो जाते हैं। व्रत के दिन इस कथा को अवश्य पढ़ना चाहिये।

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